पूर्वाभास
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किसी पेड़ की
घायल शाख से जैसे
झरता है पानी
वैसे ही झरती हैं आँखें
इस माँ की
शून्य में निहारतीं
उसकी दोनों अपलक पुतलियाँ
मन की स्क्रीन पर देखा करतीं
वे सभी धुंधले चित्र
जोकि
एक-एक करके बनते रहे
बेटी होने के बोध से लेकर
तीन बेटियों की माँ बनने तक
उसकी ‘मुंह देखनी’ कर
गुणगान करते न थकने वालीं
अब देखते ही उसे
बिचकाती हैं अपना मुंह
और जिन्होंने दिया था
उसे अपना आशीष
उसी बेला में
वे भी अब
मारने लगी हैं ताने
दम घुटता है
बेटे न जनने वाली
इस माँ का
मन करता है
खुली हवा में सांस लेने का
किन्तु रुक जाते हैं उसके पाँव
ताकि किसी तरह
घर-गृहस्थी के तार न टूटें
और चरखा चलता रहे
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